Tuesday, June 15, 2010

दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई - गुलजार

दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई, जैसे एहसान उतारता है कोई
आईना देख के तसल्ली हुई, हम को इस घर में जानता है कोई

पक गया है शजर पे फल शायद, फिर से पत्थर उछालता है कोई
फिर नजर में लहू के छींटे हैं, तुम को शायद मुघालता है कोई

देर से गूँजतें हैं सन्नाटे, जैसे हम को पुकारता है कोई ।
दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई, जैसे एहसान उतारता है कोई...

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