Wednesday, January 5, 2011

अपने दिल को दोनों आलम से उठा सकता हूँ मैं

अपने दिल को दोनों आलम से उठा सकता हूँ मैं
क्या समझती हो कि तुमको भी भुला सकता हूँ मैं

कौन तुमसे छीन सकता है मुझे क्या वहम है
खुद जुलेखा से भी तो दामन बचा सकता हूँ मैं

दिल मैं तुम पैदा करो पहले मेरी सी जुर्रतें
और फिर देखो कि तुमको क्या बना सकता हूँ मैं

दफ़न कर सकता हूँ सीने मैं तुम्हारे राज़ को
और तुम चाहो तो अफसाना बना सकता हूँ मैं

तुम समझती हो कि हैं परदे बोहत से दरमियाँ
मैं यह कहता हूँ कि हर पर्दा उठा सकता हूँ मैं

तुम कि बन सकती हो हर महफ़िल मैं फिरदौस-ए-नज़र
मुझ को यह दावा कि हर महफ़िल पे छा सकता हूँ मैं

आओ मिल कर इन्किलाब ताज़ा पैदा करें
दहर पर इस तरह छा जाएं कि सब देखा करें

मजाज़ लखनवी

उसने जब कहा मुझसे गीत एक सुना दो ना

उसने जब कहा मुझसे गीत एक सुना दो ना
सर्द है फिजा दिल की, आग तुम लगा दो ना

क्या हसीं तेवर थे, क्या लतीफ लहजा था
आरजू थी हसरत थी हुक्म था तकाजा था

गुनगुना के मस्ती में साज़ ले लिया मैं ने
छेड़ ही दिया आख़िर नगमा-ऐ-वफ़ा मैंने

यास का धुवां उठा हर नवा-ऐ-खस्ता से
आह की सदा निकली बरबत-ऐ-शिकस्ता से

मजाज़ लखनवी

अलिफ की खुदकुशी

जलती बुझती रोशनियों में साया साया जलता था
सारा कमरा व्हिस्की और सिगरेट की बू में डूबा था
उबल रह था ज़हर रगों में, मौत का नशा छाया था
सारा मंज़र नुकता नुकता, मुहमल मुहमल सा लगता था
शायद कुछ दिन पहले तक यह कोई भूत बसेरा था

'अलिफ' निहत्था...'जीम' निहत्थी...सारे बे-हथियार
अपने मुल्क और अपनी कौम के मुर्दा पहरेदार

'जीम' ने सारे रंग उतारे
और कहकहा मार के गरजी
है कोई दावेदार
सारे जाम उठा कर चीखे, तेरे एक हज़ार!
'जीम' अंधेरों से बाहर आयी, किया अलिफ पर वार
बाप तेरा मकरूज़ था, मेरा कर्ज़ उतार

आर-पार सब साए गुम, भूत बने दरवाज़े
प्रेत आत्माओं की सूरत खडी हुई दीवारें
गहरी--अपार खामोशी--गहरी अथाह अपार
बे-आवाज़ अँधेरे बरसे, बरसे मूसलाधार
बिजली बन कर कौंध रहे थे यही शब्द, 'बाप तेरा मकरूज़ था मेरा'

एक अनोखी खबर छपी है शहर के सब अखबारों में
सब दुकानें बंद पडी हैं कोई नहीं बाजारों में
साएं साएं लू चलती है, मिटटी मिटटी मौसम है
आज अलिफ के जल मरने पर दुनिया भर में मातम है

जलती बुझती रोशनियों में साया साया जलता है
उबल रह है ज़हर रगों में मौत का नशा छाया है
सारा मन्ज़र नुकता नुकता मोहमल मोहमल लगता है
एलिपेना सच कहता था; यह कोई भूत बसेरा है.

अलिफ की खुदकुशी

खुश हो ए दुनिया कि एक अच्छी खबर ले आये हैं

खुश हो ए दुनिया कि एक अच्छी खबर ले आये हैं
सब ग़मों को हम मना कर अपने घर ले आये हैं

इस कदर महफूज़ गोशा इस ज़मीन पर अब कहाँ
हम उठा कर दश्त में दीवार-ओ-दर ले आये हैं

सनसनाते आसमान में उन पे क्या गुजरी न पूछ
आने वाले खून में तर बाल-ओ-पर ले आये हैं

देखता हूँ दुश्मनों का एक लश्कर हर तरफ
किस जगह मुझको यह मेरी हम-सफर ले आये हैं

मैं कि तारीकी का दुश्मन मैं अंधेरों का हरीफ़
इस लिए मुझको इधर अहल-ए-नज़र ले आये हैं

कुमार पाशी

मैं गौतम नहीं हूँ.......

मैं गौतम नहीं हूँ
मगर मैं भी जब घर से निकला था
यह सोचता था
कि मैं अपने ही आप को ढूँढ़ने जा रहा हूँ
किसी पेड़ की छाओं में
मैन भी बैठुंगा
एक दिन मुझे भी कोई ज्ञान होगा
मगर जिस्म की आग जो घर से लेकर चला था
सुलगती रही
घर के बाहर हवा तेज़ थी
और भी यह भड़कती रही
एक एक पेड़ जलकर हुआ राख
मैन ऐसे सहरा में अब फिर रहा हूँ
जहाँ मैं ही मैं हूँ
जहाँ मेरा साया है
साए का साया
और दूर तक
बस खला ही खला है

(Khaleelur Rehman Azmi)

तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे

तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे
मेरी तनहाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं

मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें
मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं

इन किताबों ने बडा ज़ुल्म किया है मुझ पर
इन-में एक रम्ज़ है जिसमें रम्ज़ का मारा हुआ ज़हन
(ramz=hint, symbol, secret)

मुज़दा-ए-इशरत अंजाम नहीं पा सकता
ज़िंदगी में कभी आराम नहीं पा सकता
(muZhda=good news)
(ishrat=gaiety, happy social life)

जोन एलिया

हम दहर के इस वीराने में जो कुछ भी नज़ारा करते हैं......

हम दहर के इस वीराने में जो कुछ भी नज़ारा करते हैं
अश्कों की ज़ुबां में कहते हैं, आहों में इशारा करते हैं

कुछ तुझको पता, क्या तुझको खबर, दिन रात ख़यालों में अपने
ए काकुल-ए-गेती हम तुझको जिस तरह संवारा करते हैं

ए मौज-ए-बला उनको भी ज़रा दो चार थपेडे हल्के से
कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफ़ान का नज़ारा करते हैं

क्या जानिए कब यह पाप कटे, क्या जानिए वोह दिन कब आये
जिस दिन के लिए हम ए जज़्बी क्या कुछ न गवारा करते हैं

[kaakul=locks (hair)] [getii=world]

हमारे शौक़ की यह इन्तेहा थी

हमारे शौक़ की यह इन्तेहा थी
क़दम रखा कि मंजिल रास्ता थी

बिछड़ के डार से बन बन फिरा वो
हिरन को अपनी कस्तूरी सज़ा थी

कभी जो ख्वाब था वो पा लिया है
मगर जो खो गयी वो चीज़ क्या थी

मैं बचपन में खिलौने तोड़ता था
मेरे अंजाम की वो इब्तिदा थी

मोहब्बत मार गयी, मुझको भी गम है
मेरी अच्छे दिनों की आशना थी

जिसे छू लूँ में वो हो जाये सोना
तुझे देखा तो जाना बद-दुआ थी

मरीज़-ए-ख्वाब को तो अब शफा है
मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी

जावेद अख्तर

जब लगें ज़ख्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये........

जब लगें ज़ख्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये
है यही रस्म, तो यह रस्म उठा दी जाये

तिशनगी कुछ तो बुझे तिशना-लबान-ए-गम की
एक नदी दर्द की शहरों में बहा दी जाये

दिल का वोह हाल हुआ है गम-ए-दौरान के तले
जैसे एक लाश चट्टानों में दबा दी जाये

हमने इंसानों के दुख दर्द का हल ढूँढ़ लिया है
क्या बुरा है जो यह अफवाह उड़ा दी जाये

हमको गुजरी हुई सदियाँ तो न पह्चानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाये

फूल बन जाती हैं दहके हुए शोलों की लावें
शर्त यह है कि इन्हें खूब हवा दी जाये

कम नहीं नशे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाये

हमसे पूछो कि ग़ज़ल क्या है, ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ्जों में कोई आग छुपा दी जाये

Jaan Nisan Akhtar

चांद भी खोया खोया सा है तारे भी ख्वाबीदा हैं...

चांद भी खोया खोया सा है तारे भी ख्वाबीदा हैं
आज फिजा के बोझिल-पन से लहजे भी संजीदा हैं
[sanjeeda: serious]
जाने किन किन लोगों से इस दर्द के क्या क्या रिश्ते थे
हिज्र की इस आबाद-सरा में सब चेहरे ना-दीदा हैं
[naa-deedaa: unseen]
इतने बरसों बाद भी दोनों कैसे टूट के मिलते हैं
तू है कितना सादा-दिल और हम कितने पेचीदा हैं
[pecheeda: complex]
सुन जानां हम तर्क-ए-ताल्लुक और किसी दिन कर लेंगे
आज तुझे भी उज्लत सी है, हम भी कुछ रंजीदा हैं

घर की वोह मख्दूश इमारत गिर के फिर तामीर हुई
अब आंगन में पेड हैं जितने सारे शाख-बरीदा हैं

इस बस्ती में एक सड़क है जिससे हमको नफरत है
उसके नीचे पगडंडी है जिसके हम गिर-वीदा हैं
[gir-veeda: enamoured, attached, captivated]

इस क़दर भी तो न जज़्बात पे काबू रखो.......

इस क़दर भी तो न जज़्बात पे काबू रखो
थक गए हो तो मेरे काँधे पे बाजू रखो

भूलने पाए न उस दश्त को वहशत-ए-दिल से
शहर के बीच रहो, बाग़ में आहू* रखो
[*हिरन, deer]
खुश्क हो जायेगी रोते हुए सहरा की तरह
कुछ बचा कर भी तो इस आंख में आंसू रखो

रोशनी होगी तो आ जाएगा रहरव दिल का
उस की यादों के दिए ताक में हर सू रखो

याद आयेगी तुम्हारी ही सफ़र में उसको
उस के रूमाल में एक अच्छी सी खुश्बू रखो

अब वोह महबूब नहीं अपना मगर दोस्त तो है
उससे यह एक त'अल्लुक़ ही बहरसू रखो

मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे

मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे
में जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे

यह रोशनी के ताक्कुब में भागता हुआ दिन
जो थक गया है तो अब उसको मुख्तसर कर दे

में जिंदगी की दुआ मांगने लगा हूँ बोहत
जो हो सके तो दुआओं को बे-असर कर दे

सितारा-ए-सहरी डूबने को आया है
ज़रा कोई मेरे सूरज को बाखबर कर दे

कबीला-दार कमानें कड़कने वाली हैं
मेरे लहू की गवाही मुझे निडर कर दे

मेरी ज़मीन मेरा आखरी हवाला है
सो में रहूं न रहूं उस को बार-आवर कर दे

इफ्तिखार आरिफ

समझ रहे हैं और बोलने का यारा नहीं

समझ रहे हैं और बोलने का यारा नहीं
जो हमसे मिल के बिछड़ जाए, वो हमारा नहीं

समन्दरों को भी हैरत हुई कि डूबते वक़्त

किसी को हमने मदद के लिए पुकारा नहीं

जो हम नहीं थे तो फिर कौन था सर-ए-बाज़ार
जो कह रहा था कि बिकना हमें गवारा नहीं

अभी से बर्फ उलझने लगी है बालों से
अभी तो क़र्ज़-ए-माह-ओ-साल भी उतारा नहीं

हम अहल-ए-दिल हैं मुहब्बत की निस्बतों के अमीन
हमारे पास ज़मीनों का गोशवारा* नहीं है
[record, list]

इफ्तिखार आरिफ

बे-सबब दामन भिगोना आ गया

बे-सबब दामन भिगोना आ गया
बात करते करते रोना आ गया

खेलता रहता है मेरी दिल से वो
हाथ में उसके खिलौना आ गया

बैठे बैठे उठ के चल देते हैं हम
इश्क़ में बेताब होना आ गया

दर-ब-दर होने का यह इनाम है
हर किसी के दर पे सोना आ गया

उसको पाना था मगर पाया नहीं
ये हुआ कि खुद को खोना आ गया

आंसुओं में ढल गया दिल का लहू
इस लहू से मुँह धोना भी आ गया

जब छुआ उसका बदन तो यूं लगा
हाथ में मिट्टी के सोना आ गया

चांद सा चेहरा, सितारे बाल में
रात को मोती पिरोना आ गया

लहलहा उठी हैं फसलें शेर की
अश्क तुम को बीज बोना आ गया

इब्राहीम अश्क

तेरे शहर मैं एक दीवाना भी है

तेरे शहर मैं एक दीवाना भी है
जो सब के सितम का निशाना भी है

बड़ा सिलसिला है खुदा से मेरा
फलक पे मेरा आना जाना भी है

है मकसद तो अपनी ही तक्मील का
मोहब्बत यह तेरी बहाना भी है

रवायत है आदम से यह इश्क़ की
यह सौदा बोहत ही पुराना भी है

भटकते हैं आवारा गलियों मैं हम
कहीं आशिकों का ठिकाना भी है

मुसलसल सफर मैं ही अपनी हयात
यहाँ से कहीं लौट जाना भी है

मिले वोः तो कुछ हाल-ए-दिल हम कहें
आज मौसम सुहाना भी है

कही है ग़ज़ल हमने उसके लिए
यह अश्क जिस से छुपाना भी है

इब्राहीम अश्क

एक छोटा सा लड़का था मैं ........

एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों
एक मेले में पहुंचा हुमकता हुआ
जी मचलता था एक एक शै पर मगर
जेब खाली थी कुछ मोल ले न सका
लौट आया लिए हसरतें सैकड़ों
एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों

खैर महरूमियों के वोह दिन तो गए
आज मेला लगा है उसी शान से
आज चाहूँ तो एक एक दुकान मोल लूँ
आज चाहूँ तो सारा जहाँ मोल लूँ
नारसाई का अब जी में धड़का कहाँ?
पर वोह छोटा सा, अल्हड़ सा लड़का कहाँ?

Ibn Insha

हर क़दम पर नित नये सांचे में ढल जाते हैं लोग

हर क़दम पर नित नये सांचे में ढल जाते हैं लोग
देखते ही देखते कितने बदल जाते हैं लोग

किस लिए कीजिए किसी गुम-गश्ता जन्नत की तलाश
जब कि मिट्टी के खिलौनों से बहल जाते हैं लोग

कितने सादा-दिल हैं अब भी सुन के आवाज़-ए-जरस
पेश-ओ-पास से बे-खबर घर से निकल जाते हैं लोग

शमा की मानिंद अहल-ए-अंजुमन से बे-न्याज़
अक्सर अपनी आग मैं चुप चाप जल जाते हैं लोग

शाएर उनकी दोस्ती का अब भी दम भरते हैं आप
ठोकरें खा कर तो सुनते हैं संभल जाते हैं लोग

हिमायत अली शाएर

भुलाता लाख हूँ, लेकिन बराबर याद आते हैं

भुलाता लाख हूँ, लेकिन बराबर याद आते हैं
इलाही, तर्क-ए-उलफ़त पर वो क्यूँ कर याद आते हैं

न छेड़ ए हम-नशीं, कैफ़ियत-ए-सहबा के अफ़साने
शराब-ए-बे-खुदी के मुझको सागर याद आते हैं

रहा करते हैं क़ैद-ए-होश में ए वाय नाकामी
वो दस्त-ए-खुद्फरामोशी के चक्कर याद आते हैं

नहीं आती, तो याद उनकी महीनों तक नहीं आती
मगर जब याद आते हैं, तो अक्सर याद आते हैं

हक़ीक़त खुल गई हसरत तेरे तर्क-ए-मोहब्बत की
तुझे तो अब वोह पहले से भी बढ कर याद आते हैं

हसरत मोहानी

शबाब आया किसी बुत पे फ़िदा होने का वक़्त आया

शबाब आया किसी बुत पे फ़िदा होने का वक़्त आया
मेरी दुनिया में बंदे के ख़ुदा होने का वक़्त आया

उन्हें देखा तो ज़ाहिद ने कहा ईमां की यह है
कि अब इंसान को सजदा रवा होने का वक़्त आया

तकल्लुम की ख़मोशी कह रही है हर्फ़-ए-मतलब से
कि अश्क-आमेज़ नज़रों से अदा होने का वक़्त आया

ख़ुदा जाने यह है ओज-ए-यक़ीं या पस्ती-ए-हिम्म्त
ख़ुदा से कह रहा हूं ना-ख़ुदा होने का वक़्त आया

हमें भी आ पड़ा है दोस्तों से काम कुछ य'अनी
हमारे दोस्तों के बे-वफ़ा होने का वक़्त आया

(पंडित हरि चंद अख़्तर)

दिल से ख़याल-ए-दोस्त भुलाया न जायेगा

दिल से ख़याल-ए-दोस्त भुलाया न जायेगा
सीने में दाग है, मिटाया न जायेगा

तुमको हज़ार शर्म सही, मुझको लाख ज़ब्त
उल्फत वो राज़ है जो छुपाया न जायेगा

मकसूद अपना कुछ न खुला लेकिन इस कदर
यानी वो ढूँढ़ते हैं कि पाया न जायेगा

बिगडें न बात बात पे क्यूँ जानते हैं वो
हम वो नहीं कि हमको मनाया न जायेगा

अल्ताफ हुसैन हाली

हम ही में थी न कोई बात याद न तुमको आ सके

हम ही में थी न कोई बात याद न तुमको आ सके
तुमने हमें भुला दिया हम न तुम्हें भुला सके

तुम्ही न सुन सके अगर, किस्सा-ए-गम सुनेगा कौन
किसकी ज़ुबां खुलेगी फिर, हम न अगर सुना सके

होश में आ चुके थे हम, जोश में आ चुके थे तुम
बज़्म का रंग देख कर सर न मगर उठा सके

रौनक-ए-बज़्म बन गए, लब पे हिकायतें रहीं
दिल में शिकायतें रहीं, लब न मगर हिला सके

इज्ज़ से और बढ गई बरहमी-ए-मिज़ाज-ए-दोस्त
अब वोह करे इलाज-ए-दोस्त जिसकी समझ में आ सके

शौक़-ए-विसाल है यहाँ, लब पे सवाल है यहाँ
किसकी मजाल है यहाँ हम से नज़र मिला सके

अहले जुबां तो हैं बोहत, कोई नहीं है अहल-ए-दिल
कौन तेरी तरह हफीज़ दर्द के गीत गा सके

(Hafiz Jalandhury)

हिन्दोस्तान उम्मीद से है..

हिंदुस्तान में दो दो हिंदुस्तान दिखाई देते हैं

एक है जिसका सर नवें बादल* में है
दूसरा जिसका सर अभी दलदल में है

एक है जो सतरंगी थाम के उठता है
दूसरा पैर उठाता है तो रुकता है

फिरका-परस्ती तौहम परस्ती और गरीबी रेखा
एक है दौड़ लगाने को तय्यार खडा है

'अग्नि' पर रख पर पांव उड़ जाने को तय्यार खडा है
हिंदुस्तान उम्मीद से है!


आधी सदी तक उठ उठ कर हमने आकाश को पोंछा है
सूरज से गिरती गर्द को छान के धूप चुनी है

साठ साल आजादी के...हिंदुस्तान अपने इतिहास के मोड़ पर है
अगला मोड़ और 'मार्स' पर पांव रखा होगा!!

हिन्दोस्तान उम्मीद से है..

गुलज़ार

एक नया मोड़ देते हुए फिर फ़साना बदल दीजिये

एक नया मोड़ देते हुए फिर फ़साना बदल दीजिये
या तो खुद ही बदल जाइए या ज़माना बदल दीजिये

तर निवाले खुशामद के जो खा रहे हैं वो मत खाइए
आप शाहीन बन जायेंगे आब-ओ-दाना बदल दीजिये

अहल-ए-हिम्मत ने हर दौर मैं कोह* काटे हैं तकदीर के
हर तरफ रास्ते बंद हैं, ये बहाना बदल दीजिये
[कोह=पहाड़]

तय किया है जो तकदीर ने हर जगह सामने आएगा
कितनी ही हिजरतें कीजिए या ठिकाना बदल दीजिये

हमको पाला था जिस पेड़ ने उसके पत्ते ही दुश्मन हुए
कह रही हैं डालियाँ, आशियाना बदल दीजिये

मंज़र भोपाली

कही सुनी पे बोहत एतबार करने लगे

कही सुनी पे बोहत एतबार करने लगे
मेरे ही लोग मुझे संगसार* करने लगे
[*संगसार=पत्थर मारना, getting brickbats]

पुराने लोगों के दिल भी हैं खुशबुओं की तरह
ज़रा किसी से मिले, एतबार करने लगे

नए ज़माने से आँखें नहीं मिला पाये
तो लोग गुज़रे ज़माने से प्यार करने लगे

कोई इशारा, दिलासा न कोई वादा मगर
जब आई शाम तेरा इंतज़ार करने लगे

हमारी सादामिजाजी कि दाद दे कि तुझे
बगैर परखे तेरा एतबार करने लगे

वसीम बरेलवी

कुछ दिन तो बसो मेरी आँखों में

कुछ दिन तो बसो मेरी आँखों में
फिर ख्वाब अगर हो जाओ तो क्या

कोई रंग तो दो मेरे चेहरे को
फिर ज़ख्म अगर महकाओ तो क्या

जब हम ही न महके फिर साहब
तुम बाद-ए-सबा कहलाओ तो क्या

एक आईना था, सो टूट गया
अब खुद से अगर शरमाओ तो क्या

दुनिया भी वही और तुम भी वही
फिर तुमसे आस लगाओ तो क्या

मैं तनहा था, मैं तनहा हूँ
तुम आओ तो क्या, न आओ तो क्या

जब देखने वाला कोई नहीं
बुझ जाओ तो क्या, गहनाओ तो क्या

एक वहम है ये दुनिया इसमें
कुछ खो'ओ तो क्या और पा'ओ तो क्या

है यूं भी ज़ियाँ और यूं भी ज़ियाँ
जी जाओ तो क्या मर जाओ तो क्या

उबैदुल्लाह अलीम

दोस्त जितने भी थे मज़ार में हैं

दोस्त जितने भी थे मज़ार में हैं
गालिबन मेरे इंतज़ार में हैं

एक शाएर बना खुदा-ए-सुखन
जो रसूल-ए-सुखन थे, ग़ार में हैं

क्या सबब है कि एक मौसम में
कुछ खिजां में हैं, कुछ बहार में हैं

ख़ार समझो न तुम इन्हें हरगिज़
सांप के दांत गुल के हार में हैं

शिम्र-ओ-फ़िरऔन कब हुए मरहूम
उनके औसाफ रिश्तेदार में हैं

सबके सब काविश फ़रिश्ता-खिसाल
ऐब जितने हैं खाकसार में हैं

काविश बद्री

खोया खोया उदास सा होगा

खोया खोया उदास सा होगा
तुमसे वोह शख्स जब मिला होगा

फिर बुलाया है उसने ख़त लिख कर
सामने कोई मसला होगा

रूह से रूह हो चुकी बद-ज़िन
जिस्म से जिस्म कब जुदा होगा

कुर्ब का ज़िक्र जब चला होगा
दरमियान कोई फासला होगा

घर में सब सो रहे होंगे
फूल आँगन में जल चुका होगा

कल की बातें करोगे जब लोगो!
खौफ सा दिल में रूनुमा होगा

बलराज कोमल

वो फ़िराक और वो विसाल कहाँ

वो फ़िराक और वो विसाल कहाँ
वो शब्-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल कहाँ

फुर्सत-ए-कारोबार-ए-शौक़ किसे
ज़ौक-ए-नज़ारा-ए-जमाल कहाँ

थी वो एक शख्स के तसव्वुर से
अब वो रानाई-ए-ख़याल कहाँ

ऐसा आसान नहीं लहू रोना
दिल में ताक़त जिगर में हाल कहाँ

फिक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और यह वबाल कहाँ

गालिब

यह नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चिराग़

यह नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चिराग़
तेरे ख़्याल की खुश्बू से बस रहे हैं दिमाग़

दिलों को तेरे तबस्सुम की याद यूं आई
की जगमगा उठें जिस तरह मंदिरों में चिराग

तमाम शोला-ए-गुल है तमाम मौज-ए-बहार
कि ता-हद-ए-निगाह-ए-शौक़ लहलहाते हैं बाग़

'नई ज़मीं, नया आस्मां, नई दुनिया'
सुना तो है कि मोहब्बत को इन दिनों है फ़राग

दिलों में दाग़-ए-मोहब्बत का अब यह आलम है
कि जैसे नींद में दूबे होन पिछली रात चिराग़

फिराक़ बज़्म-ए-चिरागां है महफ़िल-ए-रिन्दां
सजे हैं पिघली हुई आग से छलकते अयाग़

(फिराक)

किसी का यूं तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी

किसी का यूं तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न-ओ-इश्क़ तो धोका है सब, मगर फिर भी

हजार बार ज़माना इधर से गुजरा
नई नई है मगर कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी

खुशा इशारा-ए-पैहम, जेह-ए-सुकूत नज़र
दराज़ होके फ़साना है मुख्तसर फिर भी

झपक रही हैं ज़मान-ओ-मकाँ की भी आँखें
मगर है काफ्ला आमादा-ए-सफर फिर भी

पलट रहे हैं गरीबुल वतन, पलटना था
वोः कूचा रूकश-ए-जन्नत हो, घर है घर, फिर भी

तेरी निगाह से बचने मैं उम्र गुजरी है
उतर गया रग-ए-जान मैं ये नश्तर फिर भी

फिराक गोरखपुरी

अब यहाँ कोई नहीं , कोई नहीं आयेगा...

फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार, नहीं कोई नहीं
राहरव होगा, कहीं और चला जाएगा

ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार
लड़खडाने लगे एवानों में ख्वाबीदा चिराग़
सो गई रास्ता तक तक के हर एक रहगुज़र
अजनबी ख़ाक ने धुंधला दिए कदमों के सुराग़
गुल करो शम'एं, बढ़ाओ मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़

अपने बेख्वाब किवाडों को मुकफ्फल कर लो
अब यहाँ कोई नहीं , कोई नहीं आयेगा...

[raahrav=wayfarer, traveller]
[muqaffal=locked, kivaaR=door, gate]

वो लोग बोहत खुश-किस्मत थे

वो लोग बोहत खुश-किस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे

हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आ कर हमने
दोनों को अधूरा छोड दिया

फैज़ अहमद फैज़

नसीब आजमाने के दिन आ रहे हैं

नसीब आजमाने के दिन आ रहे हैं
क़रीब उनके आने के दिन आ रहे हैं

जो दिल से कहा है, जो दिल से सुना है
सब उनको सुनाने के दिन आ रहे हैं

अभी से दिल-ओ-जाँ सर-ए-राह रख दो
कि लुटने लुटाने के दिन आ रहे हैं

टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं

सबा फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं

चलो फैज़ फिर से कहीं दिल लगाएं
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं

फैज़ अहमद फैज़

हम तुझसे किस हवस की फलक जुस्तुजू करें

हम तुझसे किस हवस की फलक जुस्तुजू करें
दिल ही नहीं रहा है जो कुछ आरजू करें

तर-दामनी* पे शेख हमारी ना जाईयो
दामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वजू* करें

सर ता क़दम जुबां हैं जूँ शमा गो कि हम
पर ये कहाँ मजाल जो कुछ गुफ्तगू करें

है अपनी ये सलाह कि सब जाहिदान-ऐ-शहर
ऐ दर्द आ के बैत-ओ-सुबू करें

मिट जाएँ एक आन् में कसरत नुमाईयां
हम आईने के सामने आके जब हू करें

[तर-दामनी/tar-daamanii=गुनाह, guilt, sinfulness, immoral] [wazu=ablutions]

है ग़लत गर गुमान में कुछ है

है ग़लत गर गुमान में कुछ है
तुझ सिवा भी जहान में कुछ है

दिल भी तेरे ही ढंग सीखा है
आन में कुछ है, आन में कुछ है

बे-ख़बर तेग-ऐ-यार कहती है
बाकी इस नीम-जान में कुछ है

इन दिनों कुछ अजब है मेरा हाल
देखता कुछ हूँ, ध्यान में कुछ है

दर्द तो जो करे हैं जी का ज़ियाँ
फाएदा इस जियान में कुछ है

मीर दर्द

फ़ना का होश आना ज़िंदगी का दर्द-ए-सर जाना

फ़ना का होश आना ज़िंदगी का दर्द-ए-सर जाना
अजल* क्या है खुमार-ए-बादा-ए-हस्ती उतर जाना
[अजल=death, मौत]
मुसीबत में बशर के जौहर-ए-मरदाना खुलते हैं
मुबारक बुजदिलों को गर्दिश-ए-किस्मत से डर जाना

बोहत सौदा रहा वाएज़ तुझे नार-ए-जहन्नुम का
मज़ा सोज़-ए-मोहब्बत का भी कुछ ए बेखबर जाना

[ajal=death, bashar=human being, baada=wine/liquor, hastii=life, being, entity]

हमें किस तरह भूल जायेगी दुनिया

हमें किस तरह भूल जायेगी दुनिया
कि ढूँढे से हमसा ना पायेगी दुनिया

मुझे क्या खबर थी कि नक्श-ए-वफ़ा को
बिगाड़ेगी दुनिया, बनाएगी दुनिया

मोहब्बत की दुनिया में खोया हुआ हूँ
मोहब्बत भरा मुझको पायेगी दुनिया

हमें खूब दे फरेब-ए-मोहब्बत
हमारे ना धोके में आयेगी दुनिया

क़यामत की दुनिया में है दिल-फरेबी
क़यामत में भी याद आयेगी दुनिया

रुला दूँ मैं बह्ज़ाद दुनिया को खुद ही
यह मुझ को भला क्या रूलायेगी दुनिया

(बह्ज़ाद लखनवी)

इन आंखों से दिन रात बरसात होगी

इन आंखों से दिन रात बरसात होगी
अगर जिंदगी सर्फ़-ए-जज़्बात होगी

मुसाफिर हो तुम भी, मुसाफिर हैं हम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी

सदाओं को अल्फाज़ मिलने न पायें
न बादल घिरेंगे न बरसात होगी

चिरागों को आंखों में महफूज़ रखना
बड़ी दूर तक रात ही रात होगी

अज़ल-ता-अब्द तक सफर ही सफर है
कहीं सुबह होगी कहीं रात होगी

बशीर बद्र

एक तवील बोसे में--कैसी प्यास पिन्हां है?

एक तवील बोसे में--कैसी प्यास पिन्हां है?
तिशनगी की सारी रेत
उंगलियों से गिरती है!

मेरे तेरे पैरों के एक लम्स से
कैसे एक नदी सी बहती है!

क्यों उम्मीद की कश्ती मेरी--तेरी आंखों से
डूब कर उभरती है?
रोज़ अपने साहिल से एक नए समंदर तक
जाके लौट आती है!

मेरे तेरे हाथों की आग से जल उठे हैं
क़ुमक़ुमे से कमरे में!
इस नई दिवाली की आरती उतारेंगे!
आने वाली रातों के
फूल, क़ह्क़हे, आंसू!

[bosaa=kiss, chumban (Hindi)]
[pinhaaN=hidden]
[tishnagi=thirst, longing, desire]

(बाक़र मेह्दी)

मंजिलें थीं, न कुछ दिल में था, न सर में था

न मंजिलें थीं, न कुछ दिल में था, न सर में था
अजब नज़ारा-ए-ला-सिम्तियत* नज़र मैं था
[directionless view]

अताब था किसी लम्हे का एक ज़माने पर
किसी को चैन न बाहर था और न घर में था

छुपा के ले गया दुनिया से अपने दिल के घाव
कि एक शख्स बोहत ताक़* इस हुनर मैं था
[adept]


किसी के लौटने की जब सदा सुनी तो खुला
कि मेरे साथ कोई और भी सफ़र में था

झिझक रहा था वोः कहने से कोई बात ऎसी
मैं चुप खडा था कि सब कुछ मेरी नज़र में था

अभी न बरसे थे बानी घिरे हुए बादल
मैं उडती ख़ाक की मानिंद रहगुज़र में था

मनचंदा बानी

खोया खोया उदास सा होगा

खोया खोया उदास सा होगा
तुमसे वोह शख्स जब मिला होगा

फिर बुलाया है उसने ख़त लिख कर
सामने कोई मसला होगा

रूह से रूह हो चुकी बद-ज़िन
जिस्म से जिस्म कब जुदा होगा

कुर्ब का ज़िक्र जब चला होगा
दरमियान कोई फासला होगा

घर में सब सो रहे होंगे
फूल आँगन में जल चुका होगा

कल की बातें करोगे जब लोगो!
खौफ सा दिल में रूनुमा होगा

बलराज कोमल

लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में

लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलम-ए-ना-पायदार में

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दागदार में

उम्र-ए-दराज़ माँग के लाए थे चार दिन
दो आरजू में कट गए, दो इंतज़ार में

कितना है बदनसीब ज़फर दफ़न के लिए
दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

बहादुर शाह ज़फर

जलवा दिखलाये जो वोह खुद अपनी खुद-आराई का

जलवा दिखलाये जो वोह खुद अपनी खुद-आराई का
नूर जल जाये अभी चश्म-ए-तमाशाई का

रंग हर फूल में है हुस्न-ए-खुद आराई का
चमन-ए-दहर है महज़र तेरी यकताई का

अपने मरकज़ की तरफ माएल-ए-परवाज़ था हुस्न
भूलता ही नहीं आलम तेरी अंगडाई का

देख कर नज़्म-ए-दो-आलम हमें कहना ही पड़ा
यह सलीका है किसे अंजुमन आराई का

गुल जो गुलज़ार में हैं गोश-बर-आवाज़ अजीज़
मुझसे बुलबुल ने लिया तर्ज़ यह शैवाई का

(अजीज़ लखनवी)

बातें तो हजारों हैं मिलूं भी तो कहूँ क्या

बातें तो हजारों हैं मिलूं भी तो कहूँ क्या
ये सोच रहा हूँ कि उसे खत में लिखूँ क्या

आवारगी-ए-शौक़ से सड़कों पे नहीं हूँ
हालात से मजबूर हूँ मैं और करूं क्या

करते थे बोहत साज़ और आवाज़ की बातें
अब इल्म हुआ हमको कि है सोज़-ए-दुरूं क्या

मरना है तो सुकरात की मानिंद पियूं ज़हर
इन रंग बदलते हुए चेहरों पे मरूं क्या

फितरत भी है बेबाक सदाकत का नशा भी
हर बात पे खामोश रहूं, कुछ न कहूँ क्या

जिस घर में न हो ताजा हवाओं का गुज़र भी
उस घर की फसीलों में भला क़ैद रहूं क्या

मुरझा ही गया दिल का कँवल धूप में आरिफ
खुश्बू की तरह इस के ख्यालों में बसूँ क्या

आरिफ शफीक

फूल खिले हैं, लिखा हुआ है 'तोड़ो मत'

फूल खिले हैं, लिखा हुआ है 'तोड़ो मत'
और मचल कर जी कहता है 'छोड़ो मत'

रुत मतवाली, चांद नशीला, रात जवान
घर की आमद ख़र्च यहां तो जोड़ो मत

अब्र झुका है चांद के गोरे मुखड़े पर
छोडो लाज, लगो दिल से, मुँह मोड़ो मत

दिल को पत्थर कर देने वाली यादो
अब अपना सर इस पत्थर से फ़ोड़ो मत

मत अमीक की आंखों से दिल में झाँको
इस गहरे सागर से नाता जोड़ो मत

(अमीक़ हनफी)

काम अब कोई न आयेगा बस एक दिल के सिवा

काम अब कोई न आयेगा बस एक दिल के सिवा
रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-क़ातिल के सिवा

बा'अस-ए-रश्क है तनहारवी-ए-रह्रव-ए-शौक़
हमसफ़र कोई नहीं दूरी-ए-मंज़िल के सिवा

हमने दुनिया की हर शै से उठाया दिल को
लेकिन एक शोख के हंगामा-ए-महफ़िल के सिवा

तेग-ए-मुंसिफ हो जहाँ, दार-ओ-रसन हो शाहिद
बेगुनाह कौन है उस शहर में क़ातिल के सिवा
[tegh=sword, shaahid=witness]
जाने किस रंग से आई है गुलिस्तां में बहार
कोई नगमा ही नहीं शोर-ए-सलासिल के सिवा

(अली सरदार जाफरी)

ये तमाशा देख कर हम आईना-बेज़ार हैं

ये तमाशा देख कर हम आईना-बेज़ार हैं
जिनके चेहरे ही नहीं वो आईना-बरदार* हैं
[bezaar: apathetic, indifferent] [aaina-bardaar=carrying mirrors]

शमा रोशन कर रहे हैं ताजिरान-ए-तीरगी*
क्या अनोखी दास्ताँ है, क्या अजब किरदार हैं
[taajir=trader, teergi=darkness]

ऐ मेरी जम्हूरियत! तेरी कहानी है अजीब
काबिल-ए-नफरत हैं जो, वो साहब-ए-किरदार हैं

मुद्दतों से सो रहे हैं हम हिसार-ए-ज़ात में
और ये दावा भी है बेदार थे, बेदार हैं
[bedaar=awake]
आप आलम पैदलों की चाल से घबरा गए
अस्प, कश्ती, फील, फर्ज़ीं सब पास-ए-दीवार हैं
[All above are names of chessmen in Urdu]

आलम खुर्शीद

यही शाख़ तुम जिसके नीचे चश्म-ए-नम हो

यही शाख़ तुम जिसके नीचे चश्म-ए-नम हो
अब से कुछ साल पहले
मुझे एक छोटी बच्ची मिली थी
जिसे मैंने आग़ोश में
ले कर पूछा था, बेटी
यहां क्यूं खड़ी रो रही हो
मुझे अपने बोसीदा आंचल में
फूलों के गहने दिखा कर
वह कहने लगी
मेरा साथी, उधर
उसने अपनी उंगली उठा कर बताया
उधर, उस तरफ़ ही
जिधर ऊंचे महलों के गुंबद
मिलों की सियाह चिमनियां
आसमां की तरफ़ सर उठाए खड़ी हैं
यह कह कर गया है कि, मैं
सोने चांदी के गहने तेरे
वास्ते लेने जाता हूं, रामी

अख़्तर-उल-ईमान

शाम होती है सहर होती है

शाम होती है सहर होती है
यह वक़्त-ए-रवां
जो कभी सर पे मेरे संग-ए-गराँ बन के गिरा
राह में आया कभी मेरी हिमाला बन कर
जो कभी उक्दा बना ऐसा कि हल ही न हुआ
अश्क बन कर मेरी आंखों से कभी टपका है
जो कभी खून-ए-जिगर बन कर मिज़ह पर आया

आज बेवास्ता यूं गुज़रा चला जाता है
जैसे मैं कशमकश-ए-ज़ीस्त में शामिल ही नहीं

अख्तरुल ईमान

तमन्नाओं को ज़िंदा, आरज़ुओं को जवां कर लूँ

तमन्नाओं को ज़िंदा, आरज़ुओं को जवां कर लूँ
यह शर्मीली नज़र कह दे तो कुछ गुस्ताखियां कर लूँ

बहार आई है बुलबुल दर्द-ए-दिल कहती है फूलों से
कहो तो मैं भी अपना दर्द-ए-दिल तुम से बयां कर लूँ

हजारों शोख़ अरमां ले रहे हैं चुटकियाँ दिल में
हया इनकी इजाज़त दे तो कुछ बे-बाकियां कर लूँ

कोई सूरत तो हो दुनिया-ए-फानी में बहलने की
ठहर जा ए जवानी मातम-ए-उम्र-ए-रवां कर लूँ

चमन में हैं बहम परवाना-ओ-शमा-ओ-गुल-ओ-बुलबुल
इजाज़त हो तो मैं भी हाल-ए-दिल अपना बयां कर लूँ

किसे मालूम कब किस वक़्त किस पर गिर पडे बिजली
अभी से मैं चमन में चल कर आबाद आशियाँ कर लूँ

मुझे दोनों जहाँ में एक वोह मिल जाएँ गर अख्तर
तो अपनी हसरतों को बे-नयाज़-ए-दो-जहाँ कर लूँ

अख्तर शीरानी

मोहब्बत की दुनिया में मशहूर कर दूँ

मोहब्बत की दुनिया में मशहूर कर दूँ
मेरे सादा दिल तुझ को मग़रूर कर दूँ

तेरे दिल को मिलने की खुद आरजू हो
तुझे इस कदर गम से रंजूर कर दूँ

मुझे ज़िंदगी दूर रखती है तुझ से
जो तू पास हो तो उसे दूर कर दूँ

मोहब्बत के इकरार से शर्म कब तक
कभी सामना हो तो मजबूर कर दूँ

ये बे रंगियां कब तक ए हुस्न-ए-रंगीन
इधर आ, तुझे इश्क़ में चूर कर दूँ

तू गर सामने हो तो मैं बेखुदी में
सितारों को सजदे पे मजबूर कर दूँ

नहीं ज़िंदगी को वफ़ा वरना अख्तर
मोहब्बत से दुनिया को मामूर कर दूँ

अख्तर शीरानी

एक किरन मेहर की ज़ुल्मात पे भारी होगी

एक किरन मेहर की ज़ुल्मात पे भारी होगी
रात उनकी है मगर सुबह हमारी होगी

इसी निस्बत से सेहर निखरी हुई नज़र आएगी
जिस क़दर रात यह बीमार पे भारी होगी

यह जो मिलती है तेरे ग़म से ग़म-ए-दहर की शक्ल
दिल ने तस्वीर से तस्वीर उतारी होगी

इस तरफ़ भी कोई ख़ुश्बू से महकता झोंका
ऐ सबा तूने वह ज़ुल्फ़ संवारी होगी

हमसफ़ीरान-ए-चमन आओ पुकारें मिल कर
यहीं ख़्वाबीदा कहीं बाद-ए-बहारी होगी

बू-ए-गुल आती है मिटटी से चमन की जब तक
हम पे दह्शत न ख़िज़ां की कभी तारी होगी

Akhtar Saeed Khan

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत* का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम* न सही, फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से खफा है, तो ज़माने के लिए आ

एक उमर से हूँ लज्ज़त-ए-गिरया* से भी महरूम
ए राहत-ए-जां मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-खुशफ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
यह आखिरी शमाएं भी बुझाने के लिए आ

***[pindaar= pride] [maraasim=relations] [giryaa=weeping, crying]

इस से पहले कि बेवफा हो जाएँ

इस से पहले कि बेवफा हो जाएँ
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ

हम भी मजबूरियों का उज़्र करें
फिर कहीं और मुब्तिला हो जाएँ

अब के गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ
(क़बा=ड्रेस)

बंदगी हमने छोड़ दी फ़राज़
क्या करें लोग जब खुदा हो जाएँ

अहमद फ़राज़

माना कि तेरा शहर में सानी भी नहीं है

माना कि तेरा शहर में सानी भी नहीं है
हमने कभी तुझ* कूचे की ठानी भी नहीं है
(Old style just like 'tere kuuche')

जलपरियों का जमघट भी किनारे नहीं लगता
दरयाओं में पहली सी रवानी भी नहीं है

जपते हैं खुले आम तेरे नाम की माला
अगयार* की वो ईजा-रसानी भी नहीं है

तुम कहते हो वो बात तुम्हें याद नहीं अब
वो बात मगर इतनी पुरानी भी नहीं है

अब आखरी डेरा है ये टूटा हुआ छप्पर
अब आगे कोई नक़ल-मकानी* भी नहीं है

(नक़ल-मकानी= shifting, leaving your place)

आदिल मंसूरी

यह सोच कर मैं रुका था कि आसमाँ है यहां

यह सोच कर मैं रुका था कि आसमाँ है यहां
ज़मीन भी पांव के नीचे, सो अब धुवाँ है यहां

न कोई ख्वाब न ख्वाहिश, न गम न खुशी
वो बे-हिसी है की हर शख्स राएगां है यहां
[be-hisi=indifference, insensitivity]
[raaigaaN=vain, useless]

यहां किसी को कोई वास्ता किसी से नहीं
किसी के बारे में कुछ सोचना ज़ियाँ है यहां
[ziyaaN=loss]

उठाये फिरते हैं दीवार-ए-गिरया पुश्त पे लोग
नफ्स नफ्स में अजब महशर-ए-फुगां है यहां
[diivar-e-giryaa=metaphorik like Jews' wailing wall]
[pusht=back] [fuGhaaN=cry of pain, lament]

अब्दुल्लाह कमाल

ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते

ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते

पयामबर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
ज़ुबान-ए-ग़ैर से क्या शरह-ए-आरज़ू करते!

मेरी तरह से मह-ओ-महर भी हैं आवारा
किसी हबीब की ये भी हैं जुस्त्जू करते

जो देखते तेरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम
असीर होने की आज़ाद आरज़ू करते

न पूछ आलम-ए-बरगश्ता तालअ'ई आतश
बरसती आग, जो बारां की आरज़ू करते

(आतिश लखनवी)

नहीं चुनी मैंने ये ज़मीन जो वतन ठहरी

नहीं चुनी मैंने ये ज़मीन जो वतन ठहरी
नहीं चुना मैंने वो घर जो खानदान बना
नहीं चुना मैंने वो मज़हब जो मुझे बख्शा गया
नहीं चुनी मैंने वो जुबां जिसमें माँ ने बोलना सिखाया
और अब मैं इन सब के लिए तैयार हूँ मारने मरने पर............

फज़ल ताबिश