Wednesday, January 5, 2011

अपने दिल को दोनों आलम से उठा सकता हूँ मैं

अपने दिल को दोनों आलम से उठा सकता हूँ मैं
क्या समझती हो कि तुमको भी भुला सकता हूँ मैं

कौन तुमसे छीन सकता है मुझे क्या वहम है
खुद जुलेखा से भी तो दामन बचा सकता हूँ मैं

दिल मैं तुम पैदा करो पहले मेरी सी जुर्रतें
और फिर देखो कि तुमको क्या बना सकता हूँ मैं

दफ़न कर सकता हूँ सीने मैं तुम्हारे राज़ को
और तुम चाहो तो अफसाना बना सकता हूँ मैं

तुम समझती हो कि हैं परदे बोहत से दरमियाँ
मैं यह कहता हूँ कि हर पर्दा उठा सकता हूँ मैं

तुम कि बन सकती हो हर महफ़िल मैं फिरदौस-ए-नज़र
मुझ को यह दावा कि हर महफ़िल पे छा सकता हूँ मैं

आओ मिल कर इन्किलाब ताज़ा पैदा करें
दहर पर इस तरह छा जाएं कि सब देखा करें

मजाज़ लखनवी

उसने जब कहा मुझसे गीत एक सुना दो ना

उसने जब कहा मुझसे गीत एक सुना दो ना
सर्द है फिजा दिल की, आग तुम लगा दो ना

क्या हसीं तेवर थे, क्या लतीफ लहजा था
आरजू थी हसरत थी हुक्म था तकाजा था

गुनगुना के मस्ती में साज़ ले लिया मैं ने
छेड़ ही दिया आख़िर नगमा-ऐ-वफ़ा मैंने

यास का धुवां उठा हर नवा-ऐ-खस्ता से
आह की सदा निकली बरबत-ऐ-शिकस्ता से

मजाज़ लखनवी

अलिफ की खुदकुशी

जलती बुझती रोशनियों में साया साया जलता था
सारा कमरा व्हिस्की और सिगरेट की बू में डूबा था
उबल रह था ज़हर रगों में, मौत का नशा छाया था
सारा मंज़र नुकता नुकता, मुहमल मुहमल सा लगता था
शायद कुछ दिन पहले तक यह कोई भूत बसेरा था

'अलिफ' निहत्था...'जीम' निहत्थी...सारे बे-हथियार
अपने मुल्क और अपनी कौम के मुर्दा पहरेदार

'जीम' ने सारे रंग उतारे
और कहकहा मार के गरजी
है कोई दावेदार
सारे जाम उठा कर चीखे, तेरे एक हज़ार!
'जीम' अंधेरों से बाहर आयी, किया अलिफ पर वार
बाप तेरा मकरूज़ था, मेरा कर्ज़ उतार

आर-पार सब साए गुम, भूत बने दरवाज़े
प्रेत आत्माओं की सूरत खडी हुई दीवारें
गहरी--अपार खामोशी--गहरी अथाह अपार
बे-आवाज़ अँधेरे बरसे, बरसे मूसलाधार
बिजली बन कर कौंध रहे थे यही शब्द, 'बाप तेरा मकरूज़ था मेरा'

एक अनोखी खबर छपी है शहर के सब अखबारों में
सब दुकानें बंद पडी हैं कोई नहीं बाजारों में
साएं साएं लू चलती है, मिटटी मिटटी मौसम है
आज अलिफ के जल मरने पर दुनिया भर में मातम है

जलती बुझती रोशनियों में साया साया जलता है
उबल रह है ज़हर रगों में मौत का नशा छाया है
सारा मन्ज़र नुकता नुकता मोहमल मोहमल लगता है
एलिपेना सच कहता था; यह कोई भूत बसेरा है.

अलिफ की खुदकुशी

खुश हो ए दुनिया कि एक अच्छी खबर ले आये हैं

खुश हो ए दुनिया कि एक अच्छी खबर ले आये हैं
सब ग़मों को हम मना कर अपने घर ले आये हैं

इस कदर महफूज़ गोशा इस ज़मीन पर अब कहाँ
हम उठा कर दश्त में दीवार-ओ-दर ले आये हैं

सनसनाते आसमान में उन पे क्या गुजरी न पूछ
आने वाले खून में तर बाल-ओ-पर ले आये हैं

देखता हूँ दुश्मनों का एक लश्कर हर तरफ
किस जगह मुझको यह मेरी हम-सफर ले आये हैं

मैं कि तारीकी का दुश्मन मैं अंधेरों का हरीफ़
इस लिए मुझको इधर अहल-ए-नज़र ले आये हैं

कुमार पाशी

मैं गौतम नहीं हूँ.......

मैं गौतम नहीं हूँ
मगर मैं भी जब घर से निकला था
यह सोचता था
कि मैं अपने ही आप को ढूँढ़ने जा रहा हूँ
किसी पेड़ की छाओं में
मैन भी बैठुंगा
एक दिन मुझे भी कोई ज्ञान होगा
मगर जिस्म की आग जो घर से लेकर चला था
सुलगती रही
घर के बाहर हवा तेज़ थी
और भी यह भड़कती रही
एक एक पेड़ जलकर हुआ राख
मैन ऐसे सहरा में अब फिर रहा हूँ
जहाँ मैं ही मैं हूँ
जहाँ मेरा साया है
साए का साया
और दूर तक
बस खला ही खला है

(Khaleelur Rehman Azmi)

तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे

तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे
मेरी तनहाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं

मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें
मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं

इन किताबों ने बडा ज़ुल्म किया है मुझ पर
इन-में एक रम्ज़ है जिसमें रम्ज़ का मारा हुआ ज़हन
(ramz=hint, symbol, secret)

मुज़दा-ए-इशरत अंजाम नहीं पा सकता
ज़िंदगी में कभी आराम नहीं पा सकता
(muZhda=good news)
(ishrat=gaiety, happy social life)

जोन एलिया

हम दहर के इस वीराने में जो कुछ भी नज़ारा करते हैं......

हम दहर के इस वीराने में जो कुछ भी नज़ारा करते हैं
अश्कों की ज़ुबां में कहते हैं, आहों में इशारा करते हैं

कुछ तुझको पता, क्या तुझको खबर, दिन रात ख़यालों में अपने
ए काकुल-ए-गेती हम तुझको जिस तरह संवारा करते हैं

ए मौज-ए-बला उनको भी ज़रा दो चार थपेडे हल्के से
कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफ़ान का नज़ारा करते हैं

क्या जानिए कब यह पाप कटे, क्या जानिए वोह दिन कब आये
जिस दिन के लिए हम ए जज़्बी क्या कुछ न गवारा करते हैं

[kaakul=locks (hair)] [getii=world]