Wednesday, January 5, 2011

माना कि तेरा शहर में सानी भी नहीं है

माना कि तेरा शहर में सानी भी नहीं है
हमने कभी तुझ* कूचे की ठानी भी नहीं है
(Old style just like 'tere kuuche')

जलपरियों का जमघट भी किनारे नहीं लगता
दरयाओं में पहली सी रवानी भी नहीं है

जपते हैं खुले आम तेरे नाम की माला
अगयार* की वो ईजा-रसानी भी नहीं है

तुम कहते हो वो बात तुम्हें याद नहीं अब
वो बात मगर इतनी पुरानी भी नहीं है

अब आखरी डेरा है ये टूटा हुआ छप्पर
अब आगे कोई नक़ल-मकानी* भी नहीं है

(नक़ल-मकानी= shifting, leaving your place)

आदिल मंसूरी

No comments:

Post a Comment