Wednesday, January 5, 2011

दोस्त जितने भी थे मज़ार में हैं

दोस्त जितने भी थे मज़ार में हैं
गालिबन मेरे इंतज़ार में हैं

एक शाएर बना खुदा-ए-सुखन
जो रसूल-ए-सुखन थे, ग़ार में हैं

क्या सबब है कि एक मौसम में
कुछ खिजां में हैं, कुछ बहार में हैं

ख़ार समझो न तुम इन्हें हरगिज़
सांप के दांत गुल के हार में हैं

शिम्र-ओ-फ़िरऔन कब हुए मरहूम
उनके औसाफ रिश्तेदार में हैं

सबके सब काविश फ़रिश्ता-खिसाल
ऐब जितने हैं खाकसार में हैं

काविश बद्री

No comments:

Post a Comment