Wednesday, January 5, 2011

इस क़दर भी तो न जज़्बात पे काबू रखो.......

इस क़दर भी तो न जज़्बात पे काबू रखो
थक गए हो तो मेरे काँधे पे बाजू रखो

भूलने पाए न उस दश्त को वहशत-ए-दिल से
शहर के बीच रहो, बाग़ में आहू* रखो
[*हिरन, deer]
खुश्क हो जायेगी रोते हुए सहरा की तरह
कुछ बचा कर भी तो इस आंख में आंसू रखो

रोशनी होगी तो आ जाएगा रहरव दिल का
उस की यादों के दिए ताक में हर सू रखो

याद आयेगी तुम्हारी ही सफ़र में उसको
उस के रूमाल में एक अच्छी सी खुश्बू रखो

अब वोह महबूब नहीं अपना मगर दोस्त तो है
उससे यह एक त'अल्लुक़ ही बहरसू रखो

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