ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते
पयामबर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
ज़ुबान-ए-ग़ैर से क्या शरह-ए-आरज़ू करते!
मेरी तरह से मह-ओ-महर भी हैं आवारा
किसी हबीब की ये भी हैं जुस्त्जू करते
जो देखते तेरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम
असीर होने की आज़ाद आरज़ू करते
न पूछ आलम-ए-बरगश्ता तालअ'ई आतश
बरसती आग, जो बारां की आरज़ू करते
(आतिश लखनवी)
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