Wednesday, January 5, 2011

एक किरन मेहर की ज़ुल्मात पे भारी होगी

एक किरन मेहर की ज़ुल्मात पे भारी होगी
रात उनकी है मगर सुबह हमारी होगी

इसी निस्बत से सेहर निखरी हुई नज़र आएगी
जिस क़दर रात यह बीमार पे भारी होगी

यह जो मिलती है तेरे ग़म से ग़म-ए-दहर की शक्ल
दिल ने तस्वीर से तस्वीर उतारी होगी

इस तरफ़ भी कोई ख़ुश्बू से महकता झोंका
ऐ सबा तूने वह ज़ुल्फ़ संवारी होगी

हमसफ़ीरान-ए-चमन आओ पुकारें मिल कर
यहीं ख़्वाबीदा कहीं बाद-ए-बहारी होगी

बू-ए-गुल आती है मिटटी से चमन की जब तक
हम पे दह्शत न ख़िज़ां की कभी तारी होगी

Akhtar Saeed Khan

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