शाम होती है सहर होती है
यह वक़्त-ए-रवां
जो कभी सर पे मेरे संग-ए-गराँ बन के गिरा
राह में आया कभी मेरी हिमाला बन कर
जो कभी उक्दा बना ऐसा कि हल ही न हुआ
अश्क बन कर मेरी आंखों से कभी टपका है
जो कभी खून-ए-जिगर बन कर मिज़ह पर आया
आज बेवास्ता यूं गुज़रा चला जाता है
जैसे मैं कशमकश-ए-ज़ीस्त में शामिल ही नहीं
अख्तरुल ईमान
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