Wednesday, January 5, 2011

भुलाता लाख हूँ, लेकिन बराबर याद आते हैं

भुलाता लाख हूँ, लेकिन बराबर याद आते हैं
इलाही, तर्क-ए-उलफ़त पर वो क्यूँ कर याद आते हैं

न छेड़ ए हम-नशीं, कैफ़ियत-ए-सहबा के अफ़साने
शराब-ए-बे-खुदी के मुझको सागर याद आते हैं

रहा करते हैं क़ैद-ए-होश में ए वाय नाकामी
वो दस्त-ए-खुद्फरामोशी के चक्कर याद आते हैं

नहीं आती, तो याद उनकी महीनों तक नहीं आती
मगर जब याद आते हैं, तो अक्सर याद आते हैं

हक़ीक़त खुल गई हसरत तेरे तर्क-ए-मोहब्बत की
तुझे तो अब वोह पहले से भी बढ कर याद आते हैं

हसरत मोहानी

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