Wednesday, January 5, 2011

हमारे शौक़ की यह इन्तेहा थी

हमारे शौक़ की यह इन्तेहा थी
क़दम रखा कि मंजिल रास्ता थी

बिछड़ के डार से बन बन फिरा वो
हिरन को अपनी कस्तूरी सज़ा थी

कभी जो ख्वाब था वो पा लिया है
मगर जो खो गयी वो चीज़ क्या थी

मैं बचपन में खिलौने तोड़ता था
मेरे अंजाम की वो इब्तिदा थी

मोहब्बत मार गयी, मुझको भी गम है
मेरी अच्छे दिनों की आशना थी

जिसे छू लूँ में वो हो जाये सोना
तुझे देखा तो जाना बद-दुआ थी

मरीज़-ए-ख्वाब को तो अब शफा है
मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी

जावेद अख्तर

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