Wednesday, January 5, 2011

हम ही में थी न कोई बात याद न तुमको आ सके

हम ही में थी न कोई बात याद न तुमको आ सके
तुमने हमें भुला दिया हम न तुम्हें भुला सके

तुम्ही न सुन सके अगर, किस्सा-ए-गम सुनेगा कौन
किसकी ज़ुबां खुलेगी फिर, हम न अगर सुना सके

होश में आ चुके थे हम, जोश में आ चुके थे तुम
बज़्म का रंग देख कर सर न मगर उठा सके

रौनक-ए-बज़्म बन गए, लब पे हिकायतें रहीं
दिल में शिकायतें रहीं, लब न मगर हिला सके

इज्ज़ से और बढ गई बरहमी-ए-मिज़ाज-ए-दोस्त
अब वोह करे इलाज-ए-दोस्त जिसकी समझ में आ सके

शौक़-ए-विसाल है यहाँ, लब पे सवाल है यहाँ
किसकी मजाल है यहाँ हम से नज़र मिला सके

अहले जुबां तो हैं बोहत, कोई नहीं है अहल-ए-दिल
कौन तेरी तरह हफीज़ दर्द के गीत गा सके

(Hafiz Jalandhury)

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